अनुच्छेद
नन्हे कंधो पर बढ़ता बस्ते का बोझ
नन्हे कंधों पर बढ़ता बस्ते का बोझ आज के विद्यार्थियों की विडंबना बन चुकी है। बस्ते का यह बोझ विद्यार्थियों से उनका स्वाभाविक बचपन खेल रहा है। बस्ते के बोझ बढ़ने का मतलब है, ज्यादा किताबें, ज्यादा विद्यालय कार्य, पढ़ाई का ज्यादा बोझ। ऐसी स्थिति में बच्चे बस्तों के बोझ के तले दबे हुए अपने बचपन की चंचलता को खो रहे हैं। बच्चों को शिक्षा इस प्रकार दी जानी चाहिए कि शिक्षा उन्हें बोझ नहीं लगे वह शिक्षा को स्वाभाविक रूप से ग्रहण करें ना कि उसे औपचारिकता निभाते हुए ग्रहण करें। इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षा को बोझ की तरह बनाकर प्रस्तुत नहीं किया जाए। शिक्षा को इस तरह सरल सहज रूप में देना चाहिए कि बच्चा उसे खुशी-खुशी सीखने के लिए तैयार हो। किताबों की बढ़ती हुई संख्या तथा बस्ते के बढ़ता हुआ बोझ के कारण यह सब संभव नहीं हो पा रहा है। अपने घर से विद्यालय के लिए स्कूल जाते बच्चे या विद्यालय से लौटते हुए बच्चों को देखकर तथा उनके पीछे पीठ पर भारी-भरकम बस्ता लदा हुआ देखकर मन को बड़ी पीड़ा होती है। यह देख कर मन को बड़ा ही दुख होता है कि पढ़ाई के नाम पर बच्चों को शिक्षा के बोझ चले दबाया जा रहा है और उनकी चंचलता और बचपन को छीना जा रहा है। इस विषय में सोचने की आवश्यकता है कि बच्चों का बचपन बस्ते के बोझ के तले दबकर गुम न हो जाए।
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