अनुच्छेद
रेल के अनारक्षित डिब्बे में यात्रा
प्रतिवर्ष गर्मियों में मैं अपने पैतृक गाँव जाता हूँ। इस बार अचानक यात्रा करनी पड़ी, जिससे आरक्षित टिकट नहीं मिल सकी। मजबूरी में अनारक्षित डिब्बे में यात्रा करनी पड़ी, जो एक अविस्मरणीय अनुभव बन गई।
सुबह-सुबह स्टेशन पहुँचा तो देखा, प्लेटफॉर्म पर भीड़ का सैलाब उमड़ा हुआ था। गाड़ी आते ही मानो युद्ध छिड़ गया। लोग अपना सामान लिए खिड़कियों, दरवाजों से अंदर घुसने की होड़ में लगे थे। बड़ी मुश्किल से मैं भी अंदर पहुँचा। सीट तो मिलने से रही, खड़े होने की जगह भी मुश्किल से मिली।
डिब्बे के भीतर का दृश्य अजीब था। कोई फर्श पर बैठा था, कोई अपने सामान पर, कुछ लोग खड़े थे। विक्रेताओं की आवाज़ें – “चाय गरम… समोसे तात्ते गरम”। फेरीवाले, भिखारी, दरवाजे पर लटके यात्री, सभी एक अजीब तस्वीर पेश कर रहे थे। खिड़की से झाँकने पर हरे-भरे खेत, पहाड़ियाँ, नदियाँ और छोटे-छोटे गाँव देखने को मिले, जो मन को सुकून देते थे।
बड़े स्टेशनों पर भीड़ और बढ़ जाती, लोग घुसने-निकलने की जद्दोजहद में लगे रहते। छोटे स्टेशनों पर कुछ क्षणों का विराम, स्थानीय विक्रेताओं की पुकारें और फिर सीटी की आवाज़। हर स्टेशन अपनी कहानी कहता।
यह यात्रा कष्टदायक होने के बावजूद जीवन का एक सच्चा प्रतिबिंब थी। अनारक्षित डिब्बे की यात्रा ने मुझे सिखाया कि जीवन में सुख-सुविधाओं के बीच भी कभी-कभी असुविधाओं से गुजरना ज़रूरी है, क्योंकि इन्हीं से हमें जीवन के वास्तविक अनुभव प्राप्त होते हैं।