कश्मीर की महान कवयित्री और संत ललद्यद (लल्लेश्वरी) ने अपने वाखों में ईश्वर के प्रति गहरी आध्यात्मिक मान्यताएं व्यक्त की हैं। ललद्यद का मानना था कि परमात्मा निराकार है और वह सभी रूपों से परे है। उन्होंने मूर्ति-पूजा और बाहरी आडंबरों का विरोध करते हुए आंतरिक शुद्धता पर बल दिया। उनके अनुसार व्यक्तिगत आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है। “शिवोऽहम्” की भावना से वे मानती थीं कि मैं ही शिव हूं और शिव ही मैं हूं। ललद्यद ने बाहरी तीर्थ-व्रत के स्थान पर आंतरिक यात्रा को महत्व दिया। उनका कहना था कि ईश्वर को पाने के लिए मन को अंदर की ओर मोड़ना आवश्यक है। उन्होंने प्राणायाम और श्वास की साधना को ईश्वर-प्राप्ति का मुख्य साधन माना। “सो हम्” की साधना पर विशेष बल दिया।
ललद्यद ने हिंदू-मुस्लिम भेदभाव को नकारते हुए सभी धर्मों के मूल तत्व की एकता पर जोर दिया। उनके लिए राम हो या रहीम, दोनों एक ही परमसत्ता के नाम थे। उनका मानना था कि मोक्ष इसी जीवन में संभव है। मृत्यु के बाद किसी स्वर्ग की प्रतीक्षा करने की बजाय वर्तमान में ही परमानंद की प्राप्ति हो सकती है।
इस प्रकार ललद्यद ने अपने वाखों में एक उदार, व्यापक और अनुभवजन्य आध्यात्मिकता का प्रतिपादन किया है।