बस्स! बहुत हो चुका कविता का भावार्थ
‘बस्स! बहुत हो चुका’ कविता ‘ओमप्रकाश वाल्मीकि’ द्वारा लिखी गई कविता है। ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित चेतना के मुखर कवि रहे हैं, जिन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से दलितों पर हुए अत्याचार तथा उनके शोषण से संबंधित अनेक कविताओं की रचना की। ‘बस्स बहुत हो चुका’ कविता भी दलितों पर वर्षों से जारी भेदभाव और शोषण की बात को उठाती है।
कविता इस प्रकार है…
जब भी देखता हूँ मैं झाड़ू या गंदगी से भरी
बाल्टी-कनस्तर किसी हाथ में
मेरी रगों में दहकने लगते हैं
यातनाओं के कई हज़ार वर्ष एक साथ
जो फैले हैं इस धरती पर
ठंडे रेतकणों की तरह।
मेरी हथेलियाँ भीग-भीग
जाती हैं पसीने से
आँखों में उतर आता है
इतिहास का स्याहपन
अपनी आत्मघाती कुटिलताओं के साथ।
झाड़ू थामे हाथों की सरसराहट
साफ़ सुनाई पड़ती है
भीड़ के बीच बियाबान जंगल में
सनसनाती हवा की तरह।
वे तमाम वर्ष वृत्ताकार होकर
घूमते हैं करते हैं छलनी लगातार
उँगलियों और हथेलियों को नस-नस में
समा जाता है ठंडा-ताप।
गहरी पथरीली नदी में असंख्य मूक पीड़ाएँ
कसमसा रही हैं मुखर होने के लिए
रोष से भरी हुईं।बस्स! बहुत हो चुका
चुप रहना निरर्थक पड़े पत्थर
अब काम आएँगे संतप्त जनों के!
भावार्थ : कवि कहते हैं कि जब वह किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं, जो सफाई का कार्य कर रहा है अर्थात जब वह किसी सफाई कर्मी को बाल्टी और कनस्तर आदि ले कर सफाई करते हुए देखते हैं, तो उनका मन बेहद क्रोधित होता है। तब उन्हें सफाई कर्मियों के रूप में तथाकथित निचली जाति करार दिए गए लोगों के साथ प्रति शोषण की घटनाएं याद आ जाती है, जोकि हजारों वर्षों से चली आ रही हैं। तब उनकी कवि गुस्से के कारण कंपकपाने लगते हैं और वह पसीने से तरबतर हो जाते हैं।
उनकी आँखों में वह काला समय मंडराने रखता है, जिसमे निरंतर तथाकथित निचली जाति के करार दिए गए लोगों के साथ शोषण किया गया। झाड़ू लगाते हुए झाड़ू की आवाज की सरसराहट से उन्हें इन्हीं लोगों के शोषण की चीख की गूंज सुनाई देती है। तब उनकी आँखों में वह सारे दृश्य घूमने लगते हैं, जो तथाकथित निचली जातियों के शोषण का प्रतीक थे। तब उनके मन को बेहद पीड़ा होती है और उनका मन रूप रोष से भर जाता है।
कवि कहना चाहते हैं कि अब शोषण का यह कार्य बहुत हो चुका। अब चुप नहीं रहना है। अब हमें यानि दलित समाज को उठकर अपनी आवाज उठानी होगी और शोषण का विरोध करना होगा।
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