भारतीय राजनीति में 1990 के पश्चात तीन उभरती प्रवृतियां इस प्रकार हैं..
- राष्ट्रपति की सक्रियता में वृद्धि : 1990 के बाद भारतीय राजनीति में यह परिवर्तन आया है कि राष्ट्रपति की सक्रियता में वृद्धि हो गई है। 1990 के बाद गठबंधन की राजनीति का दौर शुरू हो गया था। इस कारण राष्ट्रपति की भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण हो गई। अलग-अलग क्षेत्रों की शक्ति में वृद्धि होने के कारण गठबंधन की राजनीति तथा सत्ता की खींचतान में राष्ट्रपति को अपनी भूमिका सिद्ध करनी थी। इसीलिए राष्ट्रपति की सक्रियता में वृद्धि हुई हालांकि इस दौर में प्रधानमंत्री पद की गरिमा और उसकी स्थिति में थोड़ी गिरावट अवश्य देखी गई लेकिन राष्ट्रपति की सक्रियता बढ़ती चली गई है। उसके बाद से स्थिति बदस्तूर जारी है।
- संसद के प्रभाव में कमी : 1990 के बाद भारतीय राजनीति में संसद के प्रभाव में कमी आई है। व्यवस्थापिका ने अपनी शक्तियों कार्यकुशलता व सम्मान बनाए रखा हो या उसमें वृद्धि की हो ऐसा दिखता तो है, लेकिन अन्य संस्थाओं की अपेक्षा संसद के प्रभाव में कमी आई है और उसका आंशिक रूप से पतन हुआ है। एक दल वाली सरकारों के काल में संसद एक प्रभावकारी संस्था के रूप में कार्य करती थी। पहले संसद में विभिन्न विवादों पर बहस होती थी लेकिन कानून भी पास होते थे, लेकिन आज के समय में स्थिति बदल गई है। अब संसद में इतना अधिक गतिरोध बढ़ गया है कि संसद का रोज का कामकाज हमेशा ठप ही रहता है। संसद का कोई भी सत्र बिना विवाद के संपन्न नहीं होता।
- भारत का अर्ध-संघ से महासंघ की ओर रुझान : 1990 के बाद भारतीय राजनीति में मुख्य परिवर्तन यह आया कि अब भारत का अर्ध-संघ से महा-संघ की ओर रुझान बढ़ा है। पहले क्षेत्रीय दलों का अपना प्रभाव बना रहता था और वर्तमान समय में भी क्षेत्रीय दलों का अपना-अपना प्रभाव है, लेकिन राष्ट्रीय परिदृश्य पर बहुत अधिक महत्व नहीं रखते। अधिकतर क्षेत्रीय दल केवल अपने राज्य तक ही सीमित हैं और अपने राज्य के क्षेत्रीय मुद्दों को ही प्राथमिकता देते हैं। राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में उनका कोई भी ना ना तो रुचि है और ना ही प्रभाव है। इस कारण क्षेत्रीय मुद्दे राष्ट्रीय राजनीति पर हावी नहीं हो पाते और राज्य तक ही सीमित रह जाते हैं।
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