निबंध
पुस्तकालय की आत्मकथा
मैं पुस्तकालय हूँ। डिजिटल युग में आज भले ही मेरा महत्व थोड़ा कम हो गया हो, लेकिन एक समय ऐसा भी था जब मैं बुद्धिजीवियों का, पुस्तक प्रेमियों का, विद्यार्थियों का, विद्वानों का, ज्ञान चाह रखने वालों का, जिज्ञासुओं का सबसे प्रिय स्थल होता था।
मैं पुस्तकालय हूँ। मैं ज्ञान का भंडार हूँ। मैं अपने अंदर ढेरों सारी पुस्तकें समेटे हुए हूँ। मेरी पुस्तकें मेरी बेटियों के समान है। क्योंकि मैंने ही इन्हें अपने वजूद में संभाल कर रखा है। मेरी सारी पुस्तकें मुझे बेहद प्रिय हैं। मैं इनसे अपना वैसा ही संबंध स्थापित करता हूं जो एक पिता एवं पुत्री के बीच होता है। भले ही मैंने इन पुस्तकों को जन्म नहीं दिया हूं यानी इन पुस्तकों की रचना किसी दूसरे व्यक्ति ने की, किसी तीसरे व्यक्ति ने छापा, लेकिन यह पूरी तरह तैयार होकर मेरे यहाँ ही आती हैं और मेरे यहाँ से लोग इनका लाभ उठाकर ज्ञान प्राप्त करते हैं। यह सारी पुस्तकें मेरी दत्तक पुत्री के समान है, क्योंकि मैंने इन्हें गोद लिया है।
यूँ तो सदैव मैंने स्वयं पर गर्व किया है, क्योंकि ज्ञान संग्रह और ज्ञान बांटने के स्रोत के रूप में मैंने सदियों से अपनी भूमिका निभाई है लेकिन आज मैं स्वयं को उपेक्षित महसूस करता हूँ, क्योंकि आज डिजिटल क्रांति की इस आंधी में पुस्तकों का महत्व कम हुआ है। लोगों में पढ़ने की प्रवृत्ति कम हुई है। पहले मेरे पास शोध करने वाले, अनुसंधान करने वाले, खोजबीन करने वाले, किसी विषय पर लिखने वाले, हर तरह के लोगों का आना जाना लगा रहता था। जब किसी को कोई भी महत्वपूर्ण जानकारी चाहिए होती थी तो वह मेरी ही शरण लेता था। लेकिन अब मोबाइल नाम के एक छोटे से यंत्र के कारण उसे वह जानकारी घर बैठे ही चंद सेकंड में मिल जाती है, इसलिए लोग मेरे पास आने का कष्ट नहीं करते। भले ही मोबाइल और इंटरनेट के माध्यम से प्राप्त जानकारी एकदम सटीक एवं प्रमाणिक ना हो लेकिन लोग फिर भी उसी पर विश्वास करते हैं क्योंकि वह उन्हें बेहद आसानी से मिल जाती है। इसी कारण आज मेरा उपयोग कम हुआ है।
अब मेरे यहाँ इतनी भीड़ नहीं दिखाई देती, जितनी पहले दिखाई देती थी। पहले में इस बात पर गर्व महसूस करता था क्योंकि मेरे यहां विद्वानों का जमावड़ा लगा रहता था, लेखकों का जमावड़ा लगा रहता था, शोधार्थियों और विद्यार्थियों का जमावड़ा लगा रहता था। आज मेरे पास लोग कम आते हैं। समय ही परिवर्तन का नियम है, शायद अब मैंने मान लिया है कि मेरा समय निकल चुका है और डिजिटल युग आ चुका है। अब मेरा स्थान किसी और ने ले लिया है।
लेकिन ऐसा नहीं है कि मैं तो पूरी तरह अप्रासंगिक हो गया हूँ। जिन्हें वास्तव में सटीक एवं प्रमाणिक ज्ञान की आवश्यकता होती है, वह मेरे पास अवश्य आते हैं। जो पुस्तक प्रेमी हैं, वह आज भी मेरे पास अवश्य आते हैं। अपने उन पुस्तक प्रेमियों को देखकर ही सुकून पा लेता हूँ।
मैं पुस्तकालय हूँ। मैं पहले भी ज्ञान का घर और आज भी ज्ञान का घर हूँ। मेरी पुस्कतें मेरी बेटियों के समान हैं। शायद समय फिर बदले, डिजिटल माध्यमों से प्राप्त जानकारी से लोग उकता जाएं। शायद लोगों में पुस्तकों के प्रति पहले जैसा प्रेम फिर उत्पन्न हो। शायद पुस्तकों का युग फिर वापस आए। मैं उस समय के इंतजार में हूँ। मैं पुस्तकालय हूँ, यही मेरी आत्मकथा है।