चरन चोंच लोचन रंग्यो, चलै मराली चाल।
क्षीर–नीर बिबरन समय, बक उघरत तेहि काल।।
तुलसीदास द्वारा रचित इस दोहे का भावार्थ इस प्रकार है :
भावार्थ : तुलसीदास कहते हैं कि बगुला हंस जैसी मतवाली चाल भले क्यों न चले, वह अपने पैरों और आंखों को हंस जैसा क्यों ना रंग ले लेकिन वह कभी हंस नहीं बन सकता। सही अवसर पर उसका झूठ सामने आ ही जाता है, और उसका भेद खुल जाता है। असली हंस में यह सामर्थ होती है कि वह दूध में मिले पानी को दूर से अलग कर सकता है, लेकिन बगुला ऐसा नहीं कर सकता। यहीं पर बगुले की पोल खुल जाती है। इस तरह हंस जैसा रूप धारण करने से बगुला हंस नहीं बन जाता। एक ना एक दिन उसकी पोल खुल जाती है, क्योंकि वह हंस जैसा रूप धारण कर लेता है, लेकिन हंस जैसे गुणों को नहीं अपना सकता ।
विशेष व्याख्या : यहाँ पर कवि ने इस दोहे के माध्यम से यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि किसी भी तरह का न ली रूप किसी गुणी व्यक्ति के जैसा नकली रूप धारण करने से हम उस व्यक्ति के समान नहीं हो जाते। किसी भी गुणी व्यक्ति के गुणों की जब बात आती है तो नकली व्यक्ति की पोल खुल जाती है। इसलिए किसी व्यक्ति के रूप की नकल न करके उसके गुणों को धारण करना चाहिए। कवि ने इसीलिए बगुले का उदाहरण दिया है। बगुला और हंस में दिखने में बहुत अधिक अंतर नहीं होता, लेकिन दोनों के गुणों में भारी अंतर होता है। इसीलिए बगुला थोड़ा बहुत परिवर्तन करके स्वयं को हमसे जैसा दिखाने का तो करता है, लेकिन उसके गुणों को नहीं अपना पाता और यहीं पर उसकी पोल खुल जाती है। |