‘अवधू गगन-मण्डल घर कीजै’ इस पंक्ति में ‘अवधू’ का आशय ‘मन’ से है।
ये पंक्तियां कबीर द्वारा रचित यह पंक्तियां कबीर द्वारा रचित सखियां की है। इन पंक्तियों के माध्यम से कबीर योगसाधना और कुंडली जागरण का महत्व समझा रहे हैं। वह अपने मन से कह रहे हैं कि हमारे शरीर ही एक ब्रह्मांड के समान है। इसमें जो कुंडलिनी है, उसको जागृत करके पूरे ब्रह्मांड को अपने अंदर ही अनुभव किया जा सकता है। अपना अपने शरीर और मन को ही गगन मंडल रूपी घर बनाया जा सकता है।
कबीर द्वारा रचित इस पंक्ति का पूरा पद इस प्रकार है
अवधू गगन मंडल घर कीजै,
अमृत झरै सदा सुख उपजै, बंक नालि रस पीजै।।
मूल बाँधि सर गगन समाना, सुखमन यों तन लागी।
काम क्रोध दोऊ भया पलीता, तहँ जोनणीं जागी।।
मनवाँ जाइ दरीबै बैठा, गगन भया रसि लागा।
कहै कबीर जिय संसा नाँहीं, सबद अनाहद बागा।।
अर्थात कबीरदास अपने मन को अवधू कहकर संबोधित करते हुए कहते हैं कि वह अपने शरीर में कुण्डलिनी रूपी गगन मण्डल को ही अपना स्थायी निवास बना ले रहे हैं। उन्होंने अपने मन को अवधूत कहा है, अवधू यानि जो जानने की प्रक्रिया में हो।
कबीर अपने अवधू मन की आकांक्षा को अभिव्यक्त कर रहे हैं और कहते हैं कि मैं अपने शरीर में स्थिति कुण्डलिनी को जागृत करके अपने इस गगन मंडल को ही अपना स्थाई निवास बना लेता हूँ। जहाँ पर ज्ञान रूपी अमृत निरंतर बह रहा है। मैं वहाँ की बंकनाल से रसपान कर रहा हूँ। कुंडलिनी जागरण के कारण उपजे ज्ञान से अद्भुत सुखद अनुभूति हो रही है। सुषुम्ना नाड़ी के माध्यम से कुंडलिनी जागरण कर मूलाधार से सहस्रार यानि आकाश तक पहुँच गया हूँ।
कबीर कह रहे हैं कि सहस्रार पर पहुँच कर मेरे मन के सारे विकार जैसे काम, क्रोध आदि जलकर नष्ट हो गए हैं। मेरा मन सहस्रार रूप दरीबे में जा बैठा है। मेरे मन अमृत रस का पान कर रहा है। उसे ये अमृतरस भा गया है। अब मन के सारे संशय-संदेह मिट गए हैं और चारों तरफ ज्ञान रूपी अनाहद गूँज रहा है।
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