कबीर दास का भक्ति भाव दास्य भाव था या शाक्य भाव?​

कबीर दास का भक्ति भाव दास्य भाव से युक्त था। उन्होंने स्वयं को ईश्वर के और अपने गुरु के प्रति समर्पित किया हुआ था। दास्य भाव में ही समर्पण होता है। कबीर के अनुसार गुरु की भक्ति से ही इस जगत को पार किया जा सकता है। शिष्य के मन में व्याप्त अंधकार को गुरु ही अपने ज्ञान के प्रकाश से दूर कर सकता है। जब तक हम अपने गुरु और ईश्वर के प्रति दास्य भाव नहीं अपनाएंगे तब तक ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती और इस संसार के भवसागर से मुक्ति नहीं पाई जा सकती।

कबीर ने अपने दोहों आदि के माध्यम से हमेशा सतगुरु की महिमा का बखान किया है। उन्होंने अपने एक दोहे के माध्यम से गुरु को ईश्वर से भी ऊपर का दर्जा दिया है। उन्होंने कहा है..

गुरु गोविंद को दोऊ खड़े, काके लागूं पाय
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय

इसी प्रकार उन्होंने सतगुरु के स्मरण को भगवान के स्मरण के समक्ष माना है। उनके अनुसार..

गुरु बिन कौन बतावे बाट बड़ा विकट यम घाट

इस प्रकार कबीर दास के भक्ति भाव में दास्य भाव की ही प्रधानता रही है। दास भाव में समर्पण होता है और कवि ने स्वयं को सदैव  गुरु और ईश्वर के प्रति समर्पित किया है।


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