माला तो कर में फिरै, जीभि फिरै मुख माँहि । मनुवाँ तो दहुँ दिसि फिरै, यह तौ सुमिरन नाहिं।। |
संदर्भ : यह दोहा कबीर द्वारा रचित साखी है, जो कबीर की सखियां से लिया गया है। कबीर दास ने इस साखी के माध्यम से संसार के लोगों द्वारा की जाने वाली आडंबर एवं दिखावे की भक्ति पर कटाक्ष किया है।
भावार्थ : कबीर कहते हैं कि इस संसार के लोग ईश्वर की भक्ति करने का दिखावा ही करते हैं। वह हाथ में माला लेकर माला को घुमाते हुए जाप करते रहते हैं, और वह ऐसा दर्शाते हैं कि जैसे वह ईश्वर को याद कर रहे हैं। लेकिन वास्तव में केवल उनका हाथ ही चल रहा होता है, उनका मन कहीं और होता है उनका मन ईश्वर में नहीं होता। उनका अपने मन पर नियंत्रण नहीं होता। ऐसी स्थिति में ईश्वर के स्मरण का कोई लाभ नहीं क्योंकि वह बाहरी दिखावे के तौर पर तो ईश्वर की भक्ति कर रहे हैं, लेकिन उनका मन ईश्वर की भक्ति में नहीं लगा है, वह इधर-उधर भटक रहा है।
विशेष टिप्पणी : कबीर जी ने इस साखी के माध्यम से पाखंड एवं आडंबर पर करारा व्यंग्य किया है। वह यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि ईश्वर की भक्ति करने के लिए मन की शुद्धता, मन की निर्मलता होनी आवश्यक है। ईश्वर की भक्ति मन से की जाती है तन से नही। तन को ईश्वर की भक्ति करते हुए दिखाने से कोई लाभ नहीं जब तक न ईश्वर के ध्यान स्मरण में पूरी तरह से एकाग्र नहीं है। इसलिए ईश्वर का नाम जपते रहने का दिखावा करने से कोई लाभ नही है। ईश्वर की भक्ति करने के लिए पूरी तरह से मन से समर्पित होना पड़ता है और मन को साधना पड़ता है।
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