तिब्बत के डाँडे में खून हो जाने पर भी खूनी को सजा इसलिए नहीं मिलती थी, क्योंकि तिब्बत में डाँडे बेहद निर्जन स्थान होते थे। यह स्थान मुख्य जमीन से 16-17000 फीट की ऊंचाई पर स्थित होते थे। इन जगहों के दोनों तरफ मीलों तक कोई भी आबादी या गाँव आदि नहीं होता था। नदियों के मोड़ों और पहाड़ों के कोनों के कारण बहुत दूर तक आदमी को देखा भी नहीं जा सकता था।
इन स्थानों पर चोर-डाकुओं का डेरा लगा रहता था। चोर-डाकुओं के लिए यह सुरक्षित स्थान होता था। यहाँ से गुजरने वाले राहगीरों को ये चोर-डाकू लूट लेते थे। यहाँ पर आम आदमी नहीं होता था, इसलिए चोर-डाकू जब किसी का खून कर देते थे तो ना तो उसके लिए कोई गवाह रहता था और ना ही कोई सबूत। पुलिस भी ऐसे खतरनाक जगहों पर आने से कतराती थी, इसलिए यहां पर पुलिस की व्यवस्था भी नहीं थी। इसी कारण डाँडे में खून हो जाने पर किसी खूनी को कोई सजा नहीं मिलती थी, क्योंकि चोर डाकू यहाँ पर सब कुछ नष्ट कर डालते थे।
‘ल्हासा की ओर’ पाठ में लेखक राहुल सांकृत्यायन ने तिब्बत के इन्हीं डाँडों का जिक्र किया है। लेखक को भी इन डाँडों वाले क्षेत्र से गुजरना पड़ा था। लेखक ने चोर-डाकुओं से बचने के लिए भिखमंगे का वेश धारण कर लिया था। चोर-डाकू भिखमंगों को छोड़ देते क्योंकि वे समझते थे कि भिखमंगों के पास से लूटने लायक कोई कीमती सामान नहीं मिलेगा। लेखक ने इसी बात का फायदा उठाते हुए भिखमंगे का वेश बना लिया और आसानी से डाँडे वाले क्षेत्र को पार किया। |
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