तुलसीदास ऐसे घर या जगह पर जाने के लिए मना करते हैं, जहाँ पर प्रेम, स्नेह और सम्मान ना मिले। जिस घर में जाने पर लोग आपको देखते ही प्रसन्न न हों, जिनकी आँखों में आपको देखकर प्रेम न उमड़े, उस घर में कभी नहीं जाना चाहिए। भले ही उस घर से कितना भी लाभ क्यों ना हो।
इसलिए तुलसीदास प्रेम व स्नेह और आदर-सम्मान न मिलने वाली न मिलने वाली जगह पर जाने से मना करते हैं।
तुलसीदास अपने दोहे के माध्यम से कहते हैं
आवत हिय हरषै नहीं, नैनन नहीं सनेह।
‘तुलसी’ तहाँ न जाइए, कंचन बरसे मेह।।
अर्थात जिस घर में जाने पर लोग आपको देखते ही हर्षोल्लासित होकर प्रसन्न न हों। आपको देखकर जिनकी आँखों में प्रेम और स्नेह ना उमड़े, जो आपके आदर सत्कार सम्मान के लिए तत्पर ना हों, ऐसी जगह पर कभी नहीं जाना चाहिए। भले ही उसे घर से आपका कितना भी आर्थिक लाभ जुड़ा हो और आपको उसे घर से कितना भी लाभ क्यों ना हो रहा हो, ऐसे घर में जाने से हमेशा बचना चाहिए।
विशेष व्याख्या : यहाँ पर तुलसीदास सम्मान और स्वाभिमान को महत्व देते हैं और उनका इस दोहे के माध्यम से कहने का तात्पर्य है कि मानव के लिए अपना सम्मान और अपना स्वाभिमान महत्वपूर्ण है। जहां पर उसके सम्मान को ठेस पहुंचती हो ना तो उस जगह पर कभी भी नहीं जाना चाहिए।
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