जब हालदार साहब ने मूर्ति के नीचे मूर्तिकार मास्टर मोतीलाल पढ़ा, तब उन्होंने सोचा कि कस्बे के अध्यापक मास्टर मोतीलाल को मूर्ति बनाने का जिम्मा सौंपा गया होगा और उसे 1 महीने में मूर्ति बनाने के लिए कहा गया था, इसलिए उसने आनन-फानन में मूर्ति बनाकर पटक दी होगी। मूर्ति बनाने के बाद मूर्ति पर पारदर्शी काँच का चश्मा कैसे लगाया जाए, यह समझ में नहीं आ रहा होगा। चश्मा बनाने वाले ने कोशिश की होगी, लेकिन उससे काँच का चश्मा नहीं बन पाया होगा अथवा उसने पत्थर का चश्मा बनाकर फिट किया होगा जो बाद में निकल गया होगा। इस तरह की अनेक बातें हालदार साहब ने तब सोची जब उन्होंने मूर्ति के नीचे मास्टर मोतीलाल लिखा देखा था।
‘नेताजी का चश्मा’ पाठ स्वतंत्र प्रकाश द्वारा लिखा गया पाठ है, जिसमें उन्होंने एक ऐसी छोटी से कस्बे का वर्णन किया है, जहाँ पर चौराहे पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की पत्थर की एक प्रतिमा वहाँ की नगर पालिका द्वारा लगवाई गई थी। लेकिन उस प्रतिमा पर पत्थर का चश्मा नहीं बना था, बल्कि उस प्रतिमा पर बाहर से चश्मा चढ़ा दिया जाता था जो कि प्लास्टिक के प्रेम का बना होता था। यह चश्मा कैप्टन नामक चश्मे बेचने वाला एक व्यक्ति लगाता था।
संदर्भ पाठ
‘नेताजी का चश्मा’ – स्वतंत्र प्रकाश (कक्षा-10, पाठ-10)
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