जीवन की सार्थकता का कोई निश्चित मापदंड नहीं है। समय एवं परिस्थिति के अनुसार जीवन की सार्थकता थोड़ी बहुत परिवर्तित होती रहती है। बड़े-बड़े दर्शनिक और धर्म शास्त्री भी मानव जीवन की सार्थकता के विषय में खोज करते रहे हैं।
सामान्य अर्थों में समझाया जाए तो जीवन की सार्थकता इस बात में है कि जीवन ऐसा जिया जाए जिसमें हम दूसरों के काम आ सकें। स्वयं के स्वार्थ के लिए ही जीवन बिता देना से मानव जीवन की सार्थकता सिद्ध नहीं होती। मानव जीवन की सार्थकता तब ही होती है जब हम प्रेम से रहें, लोगों में खुशियां बांटे, लोगों के सुख-दुख में काम आएं। मानव के लिए जो सद्गुण जरुरी हैं उन्हें धारण करें। मानव जीवन की सार्थकता प्रेम से रहने में है।
प्रेम एक भावना है जो मानव के अंदर उत्पन्न होती है और प्रेम मानव जीवन को उद्देश्य देकर जाती है। खुशी एक अनुभव है जो मानव के अंदर संतोष पैदा करती है। दूसरों की मदद करना एक आचरण है जो हर मानव के लिए एक आदर्श है। जीवन की सही सार्थकता तभी होगी जब हम दूसरों की मदद करें।
Other questions
गुरु ज्ञान की बारिश अज्ञान रूपी गंदगी को कैसे साफ़ कर देती है?
किसने कहा कि ‘समानों के साथ समानता का, असमानों के साथ असमानता का व्यवहार होना चाहिए।’