औरै भाँति कुंजन में गुंजरत भीर भौर,
औरे डौर झौरन पैं बौरन के हूवै गए।
कहै पद्माकर सु औरै भाँति गलियानि,
छलिया छबीले छैल औरै छबि छ्वै गए।
औँर भाँति बिहग–समाज में आवाज़ होति,
ऐसे रितुराज के न आज दिन द्वै गए।
औरै रस औरै रीति औरै राग औरै रंग,
औरै तन औरै मन औरै बन ह्वै गए॥
संदर्भ : यह पद्यांश सुप्रसिद्ध कवि रत्नाकर द्वारा रचित ‘जगद्विनोद’ नामक ग्रंथ से उद्धृत किया गया है। इस पद्यांश के माध्यम से कवि ने वसंत ऋतु की सुंदरता का शब्द चित्र प्रस्तुत किया है।
भावार्थ : कवि रत्नाकर कहते हैं कि वसंत ऋतु में वृक्षों के झुंड में भंवरों की भीड़ द्वारा की जाने वाली गुंजन अब बिल्कुल अलग ही प्रकार की है। इस गुंजन में अब अधिक मस्ती है। इसका मुख्य कारण वसंत ऋतु है। आम के वृक्षों पर जो बौरों के गुच्छे लगते हैं, उनका आकार भी अब पहले जैसा नहीं रहा। वह वृक्ष अधिक सुगंधित और बड़े हैं।
कवि कहते हैं कि अब तो नगर-कस्बों की गालियां भी बिल्कुल बदल गई हैं और इन गलियों में घूमने वाले छैल छबीले नायक भी पहले जैसे नहीं रहे। अब उनके रंग-रूप में भी बदलाव आ गया है। पक्षियों का समूह भी अब पहले जैसे नहीं रहा। अब वह अलग प्रकार की मनमोहक आवाज निकाल रहे हैं। सभी लोगों में आए इस परिवर्तन का मुख्य कारण वसंत ऋतु है।
कवि कहते हैं कि अभी वसंत को आए हुए दो दिन भी नहीं हुए हैं और केवल दो दिन के अंदर ही सभी लोगों में इस तरह के परिवर्तन आ गए हैं। चारों तरफ राग-रंग का वातावरण फैल गया है। सभी प्राणियों में शारीरिक स्फूर्ति आ गई है और उनका मन उत्साह से भर उठा है। क्या संजीव और क्या निर्जीव सभी पदार्थों में एक अलग प्रकार का ही चमत्कारी परिवर्तन आ गया है। वसंत ऋतु का प्रभाव ही अलग दिखाई पड़ रहा है।