प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरूँ, प्रेमी मिलै न कोइ। प्रेमी कूँ प्रेमी मिलै तब, सब विष अमृत होइ।। अर्थ बताएं।

प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरूँ, प्रेमी मिलै न कोइ।
प्रेमी कूँ प्रेमी मिलै तब, सब विष अमृत होइ।।

भावार्थ : कबीर दास कहते हैं कि इस संसार में मैं ईश्वर के प्रेमी को ढूंढता फिर रहा हूँ। इतनी खोजबीन के बाद भी मुझे  मेरे जैसा ईश्वर प्रेमी नहीं मिला। कबीरदास कहते हैं कि यदि एक ईश्वर प्रेमी को दूसरा ईश्वर प्रेमी मिट जाए तो जब दोनों जो ईश्वर प्रेमी मिल जाते हैं तो सारे विषय वासनाएं मिट जातीं हैं और मैं सारे विषय वासनाएं मिटककर अमृत बन जाते हैं।

विशेष व्याख्या : कबीर दास ने इस साखी के माध्यम से ईश्वर भक्तों के सत्संग को स्पष्ट किया है उन्होंने कहा है कि यदि एक ईश्वर भक्ति को दूसरा ईश्वर भक्ति मिल जाए तो दोनों के सद्विचारों का संगम होकर उनके मन के विषय विकार भी मिट जाते हैं।

कबीर ये भी कहते हैं कि इस दुनिया में सच्चा ईश्वर भक्त मिलना बेहद कठिन है। लेकिन अगर एक ईश्वर भक्त को दूसरा ईश्वर भक्त मिल जाए तो फिर बात ही निराली है।


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