“अब वे कद्रदान कहाँ जो पकाने-खिलाने की कद्र करना जानते थे?” मियाँ नसीरुद्दीन ने यह बात किस सदंर्भ में कही? इसके पीछे छिपी व्यथा पर प्रकाश डालिए।

“अब वे कद्रदान कहाँ जो पकाने-खिलाने की कद्र करना जानते थे?” मियाँ नसीरुद्दीन ने यह बात अपनाी नानाबाइयों (रोटियों) शौकीन लोगों के संंदर्भ में कही थी।

‘मियाँ नसीरुद्दीन’ पाठ में मियां नसीरुद्दीन लेखिका कृष्णा सोबती से बातचीत करते हुए अपनी यह व्यथा प्रकट करते हैं। उनकी इस व्यथा के पीछे वह दर्द है, जिसमें उनके नानाबाइयों (रोटियों) की अब वह कदर नहीं थी। यानि उनकी रोटियों को पसंद करने वाले वैसे लो नही रहे ते। उनके अनुसार पहले उनकी दुकान पर अलग-अलग तरह की रोटियों के शौकीन लोग आते थे और अपनी अपनी पसंद की रोटियां बनवा कर बड़े चाव से खाते थे। वो रोटियों को तारीफ करते थे।

लोग उनकी अलग-अलग तरह की रोटियां खाने के लिये दूर-दूर से आते थे। लोग उनकी बाकरखानी, शीरमाल, खमीरी, ताफ़तान, बेसनी, रुमाली, तुनकी, गाजेबना, गाव, दीदा ये प्रकार की रोटियां खाने के आते थे।

लेकिन अब वह जमाना चला गया। अब तो लोग कोई सी भी रोटी खाने आते हैं कैसी भी रोटी खाते है और बस खा कर चले जाते हैं। पहले उनकी रोटियों की तारीफ करते थे और अलग-अलग रोटियों की फरमाइश करते थे। अब लोग वैसी रोटियों की फरमाइश नहीं करते। इस कथन के पीछे मियां नसीरुद्दीन की यही व्यथा है।

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संदर्भ पाठ :

‘मियाँ नसीरुद्दीन’ लेखिका – कृष्णा सोबती (कक्षा-11, पाठ-2)

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