सुदास ने पुष्प बेचने का विचार क्यों त्याग दिया?

सुदास ने पुष्प बेचने का विचार इसलिए त्याग दिया, क्योंकि जब उसने देखा कि राजा प्रसनजीत और तथागत का एक भक्त दोनों उस पुष्प का मनचाहा मूल्य देने के लिए तैयार हैं, तो उसने सोचा कि जब यह दोनों जिन तथागत के चरणों पर पुष्प अर्पण करने के लिए इसका कितना भी मूल्य देने के लिए तैयार हैं, तो यह पुष्प मैं स्वयं ही क्यों ना तथागत को अर्पित करूं। इस तरह मुझे उनकी अधिक कृपा प्राप्त होगी, इसीलिए उसने पुष्प बेचने का विचार त्याग दिया।

विस्तृत वर्णन

सुदास एक बगीचे का माली था। एक बार उसके बगीचे के सरोवर में एक कमल का पुष्प खिला। कमल का फूल बेहद सुंदर था। इससे पहले यह सुंदर फूल कभी सरोवर में नही खिला था। फूल को देखकर उसने सोचा कि वह यह फूल राजा साहब के पास लेकर जाएगा तो राजा प्रश्न को उठेंगे और उसे मनचाहा पुरस्कार मिलेगा। इसीलिए उसने कमल का फूल तोड़ कर राजा के पास जाने का निश्चय किया।

सुदास वो फूल लेकर राजमहल की ओर चल पड़ा और द्वार पर पहुंचकर उसने राजा को संदेश भिजवाया। सुदास द्वार पर खड़ा विचारों में मगन था कि वहाँ से एक सज्जन पुरुष वहां से जाता दिखाई दिया जो तथागत भगवान बुद्ध के दर्शन के लिए जा रहा था। उसने सुदास के हाथों में फूल देखकर फूल की सुंदरता होकर उससे पुष्प का मूल्य पूछा।

सुदास बोला कि वो ये फल राजा को देने वाला है। सज्जन भक्त ने कहा कि राजा भी यह फूल तथागत के चरणों में अर्पण करेंगे और मैं भी उनके ही चरणों में अर्पण करूंगा। तुम इसका उचित मूल्य बताओ। तुम्हें कितना चाहिए। सुदास बोला मुझे एक माशा स्वर्ण मिल जाए। सज्जन पुरुष ने तत्काल एक माशा स्वर्ण देनी की बात स्वीकार कर ली।

तभी अचानक वहाँ राजा आ गये। उन्होंने तक सुदास के हाथों में सुंदर पुष्प देखकर उससे उसका मूल्य पूछा और कहा कितने में दोगे। तब सुदास ने कहा, मैंने यह पुष्प इन सज्जन पुरुष को एक माशा स्वर्ण में बेच दियाहै। तब राजा ने कहा कि वो 10 माशा स्वर्ण देंगे। यह देखकर सज्जन भक्त ने 20 माशा स्वर्ण देने को कहा तो फिर राजा ने 40 माशा स्वर्ण देने को कहा।

दोनों के बीच फूल के लिए इतनी उत्कंठा देखकर उसने सोचा जब यह दोनों भक्तगण जिन तथागत के चरणों में पुष्प अर्पण करने के लिए उसका कुछ भी मूल्य देने के लिए तैयार हैं तो क्यों ना मैं स्वयं ही यह फूल तथागत के चरणो में अर्पण करूं। इस तरह सुदास ने पुष्प बेचने का विचार त्याग दिया।

संदर्भ पाठ

यह प्रसंग रवीन्द्र नाथ टैगोर द्वारा लिखी गई प्रेरणादायक कहानी ‘फूल का मूल्य’ से संबंधित है।


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