इस बात में कोई संदेह नहीं की खेल ग्रामीण जीवन की आत्मा हैं। खेल ग्रामीण जीवन में रचे-बसे हुए हैं। यह ग्रामीण लोगों की स्वाभाविक मनोवृति के अंतर्गत आते हैं।
ग्रामीण जीवन में लोगों को बचपन से ही किसी भी तरह के विशेष खेल को विशेष तौर पर खेलने की आवश्यकता नहीं पड़ती। यह उनके दैनिक जीवन की गतिविधियों से स्वतः ही जुड़ जाते हैं। ग्रामीण जीवन परिश्रमी जीवन होता है, जहाँ प्रकृति से जुड़ाव होता है और प्रकृति से जुड़कर पारिश्रमिक कार्य करने होते हैं।
दौड़ना, तालाब में तैरना, पेड़ों पर चढ़ना-उतरना, भागना, पहाड़ों पर चढ़ना यह सभी गतिविधियां ग्रामीण बच्चों की रग-रग में उनके बचपन से ही बस जाती हैं। ग्रामीण बच्चे अपने बचपन से ही खेतों में उछलते-कूदते, पेड़ों पर चढ़ते-उतरते, गाँव में दौड़ते-भागते बढ़े होते हैं। इन्हीं गतिविधियों के बीच में अपने कई तरह के देसी खेल भी विकसित कर लेते हैं जो उनकी स्वाभाविक जीवन के अनुरूप होते हैं। इस तरह खेल ग्रामीण जीवन की आत्मा बन जाते हैं और वह ग्रामीण बच्चों में बचपन से ही रच-बस जाते हैं।
ग्रामीण जीवन में शहर के लोगों की तरह किसी भी खेल विशेष को खेलने के लिए विशेष स्थान, विशेष तरह के उपकरण या विशेष तरह की वेशभूषा की जरूरत नहीं पड़ती। वह जैसे हैं उसी अवस्था में अपने खेलों को आगे बढ़ाते रहते हैं। इसी कारण खेल ग्रामीण जीवन की आत्मा हैं।
इस स्तर पर ऐसे अनेक खिलाड़ी चमके हैं, जिनका आरंभिक जीवन गाँव की सोंधी-सोंधी मिट्टी में ही पल-बढ़कर वह जाने-माने खिलाड़ी बनें और विश्व के पटल पर अपना नाम रोशन किया।