जैसे बाढ़ी काष्ट ही काटै अगिनि न काटै कोई। सब घटि अंतरि तूंही व्यापक धरै सरूपै सोई।। इस आधार पर कवि की दृष्टि में ईश्वर का क्या स्वरूप है?

जैसे बाढ़ी काष्ट ही काटै, इसके संदर्भ में कबीर की दृष्टि में ईश्वर का एक ही स्वरुप है। कबीर सारे जग में ईश्वर को एक ही स्वरूप में मानते हैं। कबीर के अनुसार ईश्वर सारे जग में इस तरह निवास करता है, जिस तरह लकड़ी में अग्नि निवास करती है। बढ़ई या लकड़हारा लकड़ी को काट तो सकता है, लेकिन वह उस लकड़ी के अंदर निहित अग्नि को नष्ट नहीं कर सकता। उसी प्रकार मनुष्य के शरीर के अंदर भी ईश्वर रूपी चेतना व्याप्त है। इस ईश्वर रूपी चेतना को कोई भी नष्ट नहीं कर सकता। मानव के अंदर ये ईश्वरीय चेतना अजर है, अमर है। इसे मनुष्य से अलग नहीं किया जा सकता। यह ईश्वरीय शक्ति हर मनुष्य के शरीर के अंदर व्यापक रूप से समाई हुई है।

कबीर कहते हैं कि…

जैसे बाढ़ी काष्ट ही काटै अगिनि न काटै कोई।
सब घटि अंतरि तूंही व्यापक धरै सरूपै सोई।।

अर्थात कबीर दास कहते हैं कि इस संसार में ईश्वर हर जगह व्याप्त है। ईश्वर कण-कण में व्याप्त है। वह इस तरह इस संसार में व्याप्त है जिस तरह लकड़ी में अग्नि समय होती है। बधाई लकड़ी को काट कर अनेक टुकड़ों में बांट देता है लेकिन उसके हर टुकड़े में अग्नि समाई है। उस लकड़ी के टुकड़े को जला देने पर अग्नि प्रज्वलित हो उठेगी। इस प्रकार हर जीव के अंदर परमात्मा के अंश के रूप में आत्मा व्याप्त है, जो परमात्मा का ही अंश है। हर मानव की आत्मा परमात्मा का ही अंश है, इसीलिए मानव आत्मा का ही स्वरूप है। मनुष्य भले ही अलग-अलग हों लेकिन उनके अंदर एक ही ईश्वर व्याप्त है।

 


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कबीर की दृष्टि में ईश्वर एक है, इसके समर्थन में उन्होंने क्या तर्क दिए हैं?

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