‘नेताजी का चश्मा’ पाठ के आधार पर शासन-प्रशासन के कार्यालयों की कार्यशैली बारे में आपकी क्या धारणा बनती है?

नेताजी का चश्मा’ पाठ के आधार पर शासन-प्रशासन के विषय में हमारी धारणा यह बनती है कि बहुत बार शासन-प्रशासन अपने निर्धारित कर्तव्य के अनुसार चुस्त-दुरुस्त व्यवस्था प्रदान करता है, तो कहीं अक्सर ऐसा होता है कि शासन-प्रशासन केवल खानापूर्ति के लिए और जल्दबाजी के चक्कर में कार्यों को यूं ही निपटा देता है। इससे उसके कार्य की गुणवत्ता नहीं होती औप बाद में परेशानी पैदा होती है।

नेताजी का चश्मा’ पाठ में भी नगर पालिका ने यही किया मूर्ति जल्दी बनाने के चक्कर में मूर्ति में थोड़ी कमी रह गई थी। नगरपालिका अगर जल्दबाजी नही करती और मूर्तिकार पर एक महीने में ही मूर्ति बनाने का दवाब नही डालती , मूर्तिकार नेता जी की मूर्ति को पूर्ण रूप से बना देता और वह उस पर पत्थर का चश्मा भी उकेत सकता था। लेकिन नगर पालिका ने एक महीने के अंदर ही मूर्तिकार पर मूर्ति बनाने के लिए दबाव डाला था तो मूर्तिकार उस पर चश्मा नहीं बना पाया। कस्बे में नगर पालिका विकास के छोटे-मोटे कार्य करवाता रहती थी, जिससे उसकी चुस्त-दुरस्तता का पता चलता है। लेकिन मूर्ति के अधूरे निर्माण से शासन-प्रशासन की लापरवाही भी पता चलती है। हमारे आसपास के शासन प्रशासन की व्यवस्था भी ऐसी ही है। कहीं पर शासन प्रशासन चुस्ती से कार्य करता है तो कहीं पर बेहद लापरवाह हो जाता है, जिससे आम नागरिकों को असुविधा होती है।

संदर्भ पाठ

‘नेताजी का चश्मा’ पाठ स्वतंत्र प्रकाश द्वारा लिखा गया एक पाठ है, जिसमें उन्होंने एक ऐसे छोटे से कस्बे का वर्णन किया है, जहाँ पर चौराहे पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की संगमरमर की बनी हुई पत्थर की प्रतिमा लगी थी, लेकिन उस प्रतिमा पर पत्थर का चश्मा नहीं बनाया गया था बल्कि बाहर से वास्तविक चश्मा फिट कर दिया गया था।


Related question:

अलगू चौधरी पंच ‘परमेश्वर की जय’ क्यों बोल पड़ा​?

Chapter & Author Related Questions

Subject Related Questions

Recent Questions

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here