रस के प्रयोगनि के सुखद सु जोगनि के, जेते उपचार चारु मंजु सुखदाई हैं । तिनके चलावन की चरचा चलावै कौन, देत ना सुदर्शन हूँ यौं सुधि सिराई हैं ॥ करत उपाय ना सुभाय लखि नारिनि को, भाय क्यौं अनारिनि कौ भरत कन्हाई हैं । ह्याँ तौ विषमज्वर-वियोग की चढ़ाई भई, पाती कौन रोग की पठावत दवाई है।। |
संदर्भ : यह पद कवि ‘जगन्नाथ दास रत्नाकर’ द्वारा रचित पद है, जो उनके ‘उद्धव शतक’ नामक पद संग्रह से लिए गए हैं। इन पदों के माध्यम से कवि प्रेम के विषय में और प्रेम मार्ग में आने वाली कठिनाईयों के विषय में अपने मन के विचार प्रस्तुत किए हैं।
अर्थ : कवि कहते हैं कि प्रेम के सुखद पलों के अनुभवों की अनुभूति करने के लिए अनेक तरह के सुंदर और सुखद उपचार होते हैं। यह सुखद उपचार प्रेमी प्रेमिका के मन को प्रसन्न करते हैं। लेकिन इन सुखद उपचारों को अपनाया कैसे जाए, उन्हें निभाया कैसे जाए, इसकी चर्चा कौन करेगा। कवि को स्वयं इन उपचारों का ज्ञान नही है।
कवि कहते हैं कि प्रेमी और प्रेमिका के मन की स्थिति बड़े ही विकट होती है। उनके मन की मनोस्थिति को समझना बेहद कठिन कार्य है। इसीलिए प्रेमी प्रेमिका के प्रेम विह्वल मन की शांति के लिए उपयुक्त उपचार ढूंढना बेहद कठिन कार्य है। कवि यह भी कहते हैं कि प्रेमी प्रेमिका एक-दूसरे से बेहद प्रेम करते हैं और इसी प्रेम के कारण उन्हें अपने प्रेम मार्ग में अनेक तरह के कष्ट एवं कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उनके इन कष्टों और कठिनाइयों को दूर करने का भी कोई उपचार नहीं है।
इस तरह कवि प्रेम के मार्ग में आने वाली कठिनाइयों और कष्टों के प्रति अपनी व्यथा व्यक्त कर रहे हैं। कवि के अनुसार प्रेम में वियोग किसी ज्वर के समान है। यह एक ऐसा रोग है, जिसका कोई भी उपचार संभव नहीं है। हर प्रेमी-प्रेमिका को प्रेम वियोग नामक रोग अवश्य ही पीड़ित होना पड़ता है।
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