पेड़ों के चीत्कारने से आशय पेड़ों की दुख भरी आवाज से है। चीत्कार का अर्थ है, चीख-पुकार यानि दुख भरी आवाज। वह आवाज जिसमें दुख हो, कष्ट हो, उसे चीत्कार कहते हैं। जब किसी को कोई कष्ट होता है, कोई दुख होता है, तो उसके मुँह से जो चीख निकलती है, जो आवाज निकलती है, वह चीत्कार कहलाती है।
यहाँ पर पेड़ों के चीत्कारने से आशय पेड़ों की उस दुख भरी आवाज से है, जो उन कुल्हाड़ी और लकड़ी काटने वाली मशीनों को देखकर उत्पन्न हुई है, जो उन पेड़ों का अस्तित्व नष्ट कर देना चाहती हैं।
मानव अपने लोभ के कारण अथवा विकास के नाम पर पेड़ों को अंधाधुंध काट रहा है, पेड़ों को नष्ट कर रहा है। वह कुल्हाड़ी से या मशीन से पेड़ों को काटता है और उनके अस्तित्व को नष्ट कर देता है। इस कारण पेड़ चीत्कार उठते हैं। जब वह कुल्हाड़ी देखते हैं तो उनके अंदर से एक चीत्कार उत्पन्न होती है।
आमतौर पर चीत्कार में आवाज होती है, वह लोगों को सुनाई देती है, लेकिन पेड़ों की चीत्कार मौन है, क्योंकि पेड़ आवाज के माध्यम से अपनी व्यथा को व्यक्त नहीं कर सकते, इसलिए जो उनकी चीत्कार है, वह आवाज के रूप में भले ही सुनाई नहीं देती हो, लेकिन उसे अनुभव किया जा सकता है।
पेड़ों की इस चीत्कार को सुनने के लिए संवेदनाए होनी आवश्यक है। पर्यावरण के प्रति प्रेम होना आवश्यक है, तभी हम पेड़ों की इस चीत्कार को सुन सकते हैं। ‘बूढ़ी पृथ्वी का दुख’ पाठ में पेड़ों की इसी चीत्कार का वर्णन किया गया है।
‘बूढ़ी पृथ्वी का दुख’ निर्मला पुतुल द्वारा रची गई एक कविता है, जिसमें उन्होंने बूढ़ी पृथ्वी के अनेक दुखों को प्रकट किया है। कवयित्री के अनुसार पृथ्वी पर बसने वाला मानव पृथ्वी के साथ निरंतर खिलवाड़ कर रहा है और उसके संसाधनों को नष्ट कर रहा है। पेड़ भी इसी बूढ़ी पृथ्वी के ही अनमोल संसाधन है। बूढ़ी पृथ्वी निरंतर अपने नष्ट होते संसाधनों को देखकर दुखी है।