असाध्य वीणा’ कविता ‘सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन’ अज्ञेय द्वारा लिखी गई एक बेहद लंबी कविता है, जो अपने अंदर गहन दार्शनिकता का भाव समेटे हुए हैं। इस कविता की रचना उन्होंने 1961 में की थी, जब वह 1957-58 के अपने जापान प्रवास के बाद भारत वापस लौटे थे। उन्होंने इस कविता का आधार भी एक जापानी लोक कथा को बनाया था। कविता के मूल में एक जापानी लोककथा छुपी हुई थी।
‘असाध्य वीणा’ कविता की मूल कहानी के अनुसार एक राजा के पास वज्रकीर्ति द्वारा ‘किरीट तरु’ नामक वृक्ष से निर्मित एक ऐसी असाध्य वीणा थी, जिसे कोई भी नहीं बजा पता था। अनेक संगीत साधक उस वीणा को बजाने का प्रयास करके हार गए, लेकिन कोई भी उसे सफलतापूर्वक साधने में सफल नहीं हो पाया।
अंततः में एक संगीत साधक प्रियंवद केशकंबली राजा की सभा में उपस्थित हुआ और उसने वीणा को साधने में सफलता प्राप्त कर ली। वह वीणा को साधने में वह इसलिए सफलता क्योंकि उसने स्वयं को वीणा पर नहीं थोपा। उसने अपने संगीत ज्ञान को वीणा पर थोपा बल्कि वीणा के तारों के साथ खुद की तारतम्यता स्थापित कर ली। उसने अपने स्वयं के अस्तित्व को भुला दिया और वीणा के प्रति समर्पित भाव से होकर वीणा को बजाने लगा। उसने वीणा को समझा और फिर स्वयं को वीणा में एकाकार कर दिया।
इस कविता के पीछे दार्शनिक भाव यही है कि जीवन को समझने के लिए स्वयं को जीवन पर नहीं थोपना है, बल्कि जीवन के मूल तत्वों को समझ कर जीवन की गहनता को समझकर उस जीवन रस के साथ एकाकार होना है। हमारा जीवन हमारी शर्तों के अनुसार नहीं चलता बल्कि हमें समर्पित भाव अपनाना पड़ता है। जब हम अपने अंदर के अहंकार को त्याग देते हैं, तब ही हम किसी कार्य अथवा साधना में सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
जीवन में किसी भी साधना या कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए स्वयं को उसके प्रति समर्पित होना आवश्यक है। अपने अंदर के अहंकार को त्याग कर समर्पण भाव अपनाने से ही हम अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सकते हैं। अपने लक्ष्य पर विजय पा सकते हैं। किसी भी तरह का अहंकार हमारी सफलता में बाधक है। यही इस कविता के पीछे निहित दार्शनिक भाव है।
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