हिंदी साहित्य के सूर्य यानी सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के अंदर परोपकार की भावना बेहद गहराई से व्याप्त थी। वह सच्ची मानवता के पुजारी थे और उनमें मानवीय गुण कूट-कूट कर भरे हुए थे। वह बेहद उपकारी थे। उन्होंने दूसरों पर उपकार यानी परोपकार की सदैव चिंता रहती थी। हिंदी के इतने महान कवि होने के बावजूद उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। उसके अलावा उनके व्यक्तिगत जीवन में भी सदैव दुख ही रहे। इन सारे दुखों के बीच भी उनके अंदर सदैव दूसरों के हित की चिंता लगी रहती थी।
निराला किसी के भी काम आने और किसी के भी दुखों को बांटने से नहीं चूकते थे। अतिथि सत्कार की बात की जाए तो अतिथि सत्कार में वह सदैव आगे रहते थे। यदि उनके घर कोई अतिथि आ जाता तो वह यथासंभव अतिथि का उचित सत्कार करते थे। आगंतुक के लिए वह स्वयं भोजन बनाते थे। भोजन की आवश्यक सामग्री ना होने पर वह अपने शुभचिंतकों और मित्रों आदि से भोजन सामग्री मांग कर ले आते और भोजन बनाते थे। अपने साथी हों, मित्र हों, शुभचिंतक हों या कोई भी अन्य सबके प्रति उनके मन में गहरे लगाव की भावना थी। निराला जी की यही परोपकार की भावना उन्हें एक महान कवि बनाती थी।
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