‘जहाँ चाह वहाँ राह’ पाठ में ‘इला के पाँव अब थकते नहीं थे’ इस पंक्ति का आशय यह था कि अब अपने काम में पूरी तरह रम गई थी। उसने अपने पाँव से वह सब कुछ करना सीख लिया था जो लोग अपने हाथों से करते हैं। इला अपने पांव से ही हर तरह का काम करने में पारंगत हो गई थी। उसने तेज गति से काम करने में महारत हासिल कर ली थी। दैनिक जीवन के घरेलू काम, चाहे कपड़े धोना हो या बर्तन धोना हो या तरकारी काटना हो अथवा लिखना पढ़ना हो यह सारे काम इला बेहद तत्परता से अपने पाँव के सहारे कर लेती थी।
धीरे-धीरे उसने अपने पाँव के अंगूठे के बीच सुई थाम कर कच्चा रेशम पिरोना भी सीख लिया और 15-16 साल की आयु होते-होते इला काठियावाड़ी कसीदाकारी में माहिर हो गई थी। उसके उसने अपने पाँव से जिन परिधानों की कशीदाकारी की, उन परिधानों की प्रदर्शनी भी लगी। इन परिधानों में काठियावाड़ शैली के अलावा लखनऊ और बंगाल की शैली की भी झलक मिल रही थी।
धीरे-धीरे इला द्वारा बनाए गए परिधान लोकप्रिय होते गए। उसकी कला निखरती गई। वह अपने पाँव से ही अपने हुनर को साधने में लगी थी। उसके पाँव उसके जीवन की गति को आगे बढ़ाने में सहायक थे। अब उसके पाँव रूक नहीं रहे थे, वह पाँवो की सहायता से ही अपने जीवन को जीने लगी थी।
‘जहाँ चाह वहाँ राह’ पाठ में इला के दोनों हाथ बेजान थे। वह अपने हाथों से कोई भी कार्य नहीं कर पाती थी। हाथों से कार्य करने में अक्षम होने पर उसने पैरों से वह सारे कार्य करना सीख लिया जो आम लोग अपने हाथों से करते हैं। धीरे-धीरे उसने अपने पैरों को ही अपना हाथ बना लिया।
यह पाठ हमें यह सीख देता है कि यदि मन में कुछ करने की ठान लो तो रास्ते अपने आप बनते जाते हैं।