निंदक का कष्ट बढ़ता चला जाता है, क्योंकि निंदक जिसकी निंदा करता है, उसकी अच्छाई को बढ़ते हुए देखा नहीं सकता। यदि निंदक देखता है कि जिसकी वह निंदा कर रहा है उसके साथ कुछ अच्छा हो रहा है तो वह उसकी और अधिक निंदा करता है। फिर व्यक्ति के साथ और अच्छा होने पर निंदक का कष्ट बढ़ता चला जाता है। उसे यह सहन नहीं होता कि जिसकी वह निंदा कर रहा है, जिसमें उसे बुराई नजर आ रही है, वह इतना अधिक सुखी क्यों है? इतना प्रसन्न क्यों है?
लेखक के अनुसार निंदक अपने कर्मों से स्वयं को ही दंडित करता है। वह अपनी ईर्ष्या व द्वेष से पीड़ित रहता है। इसलिए निंदक को कोई भी दंड देने की जरूरत नहीं। निंदक जिसकी निंदा में संलग्न है, उसके साथ कुछ भी अच्छा होते देखकर वह ईर्ष्या के कारण चैन से रह नहीं पाता। व्यक्ति के साथ अच्छा होता है तो निंदक का कष्ट बढ़ता ही चला जाता है।
उदाहरण के लिए कवि ने कोई अच्छी कविता लिखी तो उसकी निंदा करने वाला निंदक ईर्ष्या से ग्रस्त हो जाएगा और उसकी निंदा करने लगेगा। यदि कवि उससे भी अच्छी एक और कविता लिख देता है तो निंदक का कष्ट और अधिक बढ़ जाएगा। इस तरह निंदा कभी भी किसी की अच्छाई को सहन नहीं कर पाता।