न्यायालय से बाहर निकलते समय वंशीधर को कौन-सा खेदजनक विचित्र अनुभव हुआ?

न्यायालय से बाहर निकलते समय वंशीधर को यह खेदजनक विचित्र अनुभव हुआ कि इस दुनिया में न्याय और विद्वता की बात करने वाले, लंबी-चौड़ी उपाधियां धारण करने वाले, बड़ी-बड़ी दाढ़ियां रखने वाले और ढीले-ढीले चोग पहनने वाले यह सारे न्यायविद सच्चे आदर के पात्र नहीं है।

इसका मुख्य कारण यह था क्योंकि वंशीधर ने अपने कर्तव्य का निर्वहन किया था। उन्होंने पूरी तरह ईमानदारी पर चलते हुए एक भ्रष्ट व्यापारी पंडित अलोपदीन को पकड़ा और उन्हें न्यायालय में प्रस्तुत किया। पंडित अलाउद्दीन ने उन्हें रिश्वत देने की कोशिश की लेकिन उन्होंने रिश्वत नहीं स्वीकारी। उन्होंने सच्चाई और ईमानदारी का मार्ग अपनाया।

उन्हें आशा थी कि न्यायालय में उनके कर्तव्यनिष्ठा सराहना होगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ न्यायालय के न्यायविद भी पंडित अलोपदीन की रिश्वत के प्रलोभन और प्रभाव के आगे झुक गए और उन्होंने पंडित अलोपदीन को सजा देने की जगह वशीधर को ही सजा दे दी। अर्थात एक ईमानदार अधिकारी को उसकी ईमानदारी की सजा दी गई।

यदि वंशीधर इस मुकदमे में सफल होते और पंडित अलोपदीन को सजा मिलती तो अब वह अपना सीना अकड़कर करते हुए चलते लेकिन ऐसा ना हो सका। अब उल्टे उन्हे ही अपमानित होना पड़ा इसलिए न्याययलय से बाहर निकलते समय वंशीधर को ये विचित्र खेदजनक अनुभव हो रहा था। उनके मन में न्यायविदों के लिए अब आदर-सम्मान नही रह गया था।

टिप्पणी

‘नमक का दरोगा’ कहानी मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखी गई कहानी है, जिसमें उन्होंने एक कर्तव्यनिष्ठ व ईमानदार दरोगा वंशीधर की कर्तव्य निष्ठा का वर्णन किया है।

दरोगा वंशीधर पुलिस महकमे में दरोगा था। उसने एक बार एक धनी व्यापारी पंडित अलोपदीन के अवैध नमक को पकड़ लिया। पंडित अलोपदीन ने रिश्वत देने की कोशिश की। लेकिन वंशीधर ने कर्तव्य और ईमानदारी का पालन किया औरअलोपदीन को गिरफ्तार न्यायालय में प्रस्तुत किया।  न्यायालय के न्यायाधीश पंडित अलोपदीन के धन और बाहुबल के प्रभाव तथा रिश्वत के प्रलोभन में आ गए और उन्होंनेदरोगा बंशीधर की सराहना करने की जगह वंशीधर को ही खरीखोटी सुनाई और अलोपदीन को दोषमुक्त कर दिया।


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