बंशीधर के पिता बंशीधर को एक ऐसी नौकरी दिलाना चाहते थे, जिस नौकरी में बंशीधर को ऊपरी कमाई हो। यहाँ पर ऊपरी कमाई से तात्पर्य सीधे तौर पर रिश्वत से था।
बंशीधर के पिता का मानना था कि नौकरी में ऊपरी कमाई ही वास्तविक कमाई हैं। नौकरी का वेतन तो पूर्णमासी के चांद की तरह है, जो महीने में केवल एक बार दिखाई देता और धीरे-धीरे कम होता जाता है। जिस तरह पूर्णमासी का हर महीने में एक बार दिखने के बाद उसका आकार लगातार कम होता जाता है, उसी तरह के वंशीधर के पिता के अनुसार नौकरी वेतन भी महीने की पहली तारीख को मिलने के बाद लगातार खर्च होता रहता है और कम होता जाता है।
वंशीधर के पिता का मानना था कि नौकरी में ऊपरी कमाई जरूरी होती है ताकि अपने खर्चों को पूरा किया जा सके। उनके अनुसार ऊपरी कमाई ही बहता स्रोत है, जो बरकत करता है। इसलिए बंशीधर के पिता चाहते थे कि बंशीधर ऐसी नौकरी करें, जहां पर ऊपरी कमाई की गुंजाइश हो। यहाँ पर बंशीधर के पिता वंशीधर को सीधे तौर पर लेने के लिए प्रेरित कर रहे थे।
‘नमक का दरोगा’ कहानी प्रेमचंद द्वारा लिखी गई एक सामाजिक कहानी है। इसमें एक ईमानदार दरोगा मुंशी वंशीधर के अपने ईमानदार के सिद्धांत पर टिके रहने की कथा का वर्णन किया है। एक भ्रष्ट व्यवसायी पंडित अलोपदीन से सामना होने पर भी दरोगा वंशीधर ने अपनी ईमानदारी को नहीं छोड़ा और अपने कर्तव्य का निर्वहन किया। इसके लिए उसे अपनी नौकरी तक गवाँनी पड़ी।
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न्यायालय से बाहर निकलते समय वंशीधर को कौन-सा खेदजनक विचित्र अनुभव हुआ?