‘हम पंछी उन्मुक्त गगन के’ कविता की भाषा कौन सी है? (1) ब्रजभाषा (2) राजस्थानी भाषा (3) खड़ी बोली (4) अवधी भाषा

सही उत्तर है…

(3) खड़ी बोली

 

स्पष्टीकरण :

‘हम पंछी उन्मुक्त गगन के’ कविता की भाषा ‘खड़ी बोली’ है। ‘हम पंछी उन्मुक्त गगन के’ कविता ‘शिवमंगल सिंह सुमन’ द्वारा रचित एक कविता है। यह कविता खड़ी बोली में रची गई है। खड़ी बोली वह बोली होती है, जो सामान्य हिंदी कहलाती है। हिंदी का जो मानक रूप राजभाषा और सामान्य हिंदी के रूप में प्रयुक्त किया जाता है, वही खड़ी बोली है।

यह कविता भी खड़ी बोली में रचित की गई है। खड़ी बोली का मूल उद्गम दिल्ली और मेरठ के आसपास के क्षेत्र से माना जाता है। धीरे-धीरे यही खड़ी बोली लोकप्रिय होकर हिंदी की मुख्य बोली और मुख्य भाषा बन गई। ‘हम पंछी उन्मुक्त गगन’ के कविता में कवि शिवमंगल सिंह सुमन ने पिंजरे में कैद पंछी के मनोभावों को व्यक्त किया है। उनके अनुसार पिंजरे में बंद होने से पिंजरे में बंद पंछी अपनी दास्तान से खुश नहीं है। वह आजाद होना चाहते हैं, भले ही आजाद होकर उन्हें कितने भी कष्ट क्यों ना सहने पड़े, लेकिन वह आजाद होकर रहना चाहते हैं। सोने के पिंजरे के में बंद रहकर उन्हें ऐशो आराम पसंद नहीं। यहाँ पर कविता के माध्यम से कवि ने स्वतंत्रता के महत्व को बताया है। स्वतंत्रता के आगे सभी तरह के ऐशो-आराम तुच्छ है।

पूरी कविता इस प्रकार है…

हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाएँगे,
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाएँगे।

हम बहता जल पीनेवाले
मर जाएँगे भूखे-प्यासे,
कहों भली है कटुक निबौरी
कनक-कटोरी की मैदा से,

स्वर्ण-श्रंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं
तरु की फुनगी पर के झूले।

ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंच खोल
चुगते तारक अनार के दाने,

होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती साँसों की डोरी।

नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं, तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो।

— शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ 


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