चोल साम्राज्य
परिचय
चोल राज्य दक्षिण भारत का एक प्रमुख और शक्तिशाली साम्राज्य था जो लगभग 9वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी तक फलता-फूलता रहा। इस साम्राज्य का योगदान कला, वास्तुकला, साहित्य, और प्रशासन के क्षेत्र में अद्वितीय रहा है।
स्थापना और विस्तार
चोल वंश की स्थापना करिकाल चोल ने की थी, लेकिन इसे वास्तविक महानता राजराजा चोल और उनके पुत्र राजेंद्र चोल के शासनकाल में मिली। राजराजा चोल प्रथम (985-1014 ईस्वी) ने चोल साम्राज्य का विस्तार किया और इसे एक शक्तिशाली नौसैनिक शक्ति बनाया। उनके पुत्र, राजेंद्र चोल प्रथम (1014-1044 ईस्वी) ने इस साम्राज्य को और भी विस्तारित किया, जिसमें उन्होंने बंगाल की खाड़ी के पार श्रीविजय साम्राज्य (वर्तमान इंडोनेशिया और मलेशिया) तक अपने अभियानों को फैलाया।
प्रशासन
चोलों का प्रशासनिक तंत्र अत्यंत व्यवस्थित और सुसंगठित था। उन्होंने केंद्र, प्रांत, और स्थानीय स्तर पर प्रशासन का संचालन किया। गांवों में स्वायत्तता दी गई थी और वे अपने मामलों का संचालन स्वयं करते थे, जो “उर” और “सभाएँ” कहलाती थीं। कर संग्रह, भूमि रिकॉर्ड और सैन्य संगठन में भी चोल प्रशासन का विशेष योगदान था।
कला और वास्तुकला
चोल काल में कला और वास्तुकला ने अत्यधिक प्रगति की। बृहदेश्वर मंदिर (राजराजेश्वर मंदिर) तंजावुर में राजराजा चोल प्रथम द्वारा बनवाया गया था, जो चोल वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है। चोल शासकों ने कांस्य मूर्तिकला में भी विशेष योगदान दिया, जिनमें नटराज की मूर्तियाँ विश्व प्रसिद्ध हैं।
साहित्य और संस्कृति
चोल राज्य के दौरान तमिल साहित्य और संस्कृति का बहुत विकास हुआ। संगम साहित्य, भक्ति काव्य, और धार्मिक ग्रंथों की रचना हुई। चोल शासकों ने तमिल भाषा और साहित्य को प्रोत्साहन दिया।
अंतिम समय
13वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, चोल साम्राज्य का पतन प्रारंभ हो गया। पंड्या और होयसला साम्राज्यों ने चोलों की शक्ति को चुनौती दी और अंततः 1279 ईस्वी में पंड्या साम्राज्य ने चोलों को परास्त कर दिया।
निष्कर्ष
चोल राज्य ने दक्षिण भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी प्रशासनिक नीतियों, कला, वास्तुकला, और सांस्कृतिक योगदान ने भारतीय उपमहाद्वीप की धरोहर को समृद्ध किया। चोल शासकों का गौरवशाली युग भारतीय इतिहास में सदैव स्मरणीय रहेगा।
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