मल मल धोये शरीर को,
धोये न मन का मैल ।
नहाये गंगा गोमती,
रहे बैल के बैल ।।
भावार्थ : कबीरदास कहते हैं कि लोग अपने शरीर के मैल को मल-मल का साफ करते हैं। तरह-तरह के साबुन लगाकर अपने शरीर के मैल को साफ करने की कोशिश करते हैं, लेकिन वह अपने मन के मैल को साफ करने की कभी कोशिश नहीं करते। ऐसे लोग गंगा अथवा गोमती जैसी नदियों में नहा कर खुद को पवित्र मानते मानने लगते हैं। वे ये नही जानते कि भले ही बाहर से उनका शरीर को धोकर पवित्र मान लिया है, उनका मन अपवित्र ही रहता है। जब तक कोई व्यक्ति अपने मन के मैल को साफ नहीं करेगा यानि अपने मन में समाये हुए गंदे और दूषित विचारों को दूर नही करेगा तब तक उसका मन पवित्र नहीं होगा, वह व्यक्ति बैल ही बना रहेगा, वह सज्जन व्यक्ति नहीं बन सकता। वह सब पवित्र भाव से युक्त नहीं हो सकता। फिर वह चाहे किसी भी पवित्र नदी जैसे गंगा अथवा गोमती में कितना भी नहा ले, वह मूर्ख का मूर्ख ही रहेगा।
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