संतौं भाई आई ग्याँन की आँधी रे।
भ्रम की टाटी सबै उड़ाँनी, माया रहै न बाँधी।।
हिति चित्त की द्वै यूँनी गिराँनी, मोह बलिंडा तूटा।
त्रिस्नाँ छाँनि परि घर ऊपरि, कुबधि का भाँडाँ फूटा।
जोग जुगति करि संतौं बाँधी, निरचू चुवै न पाँणी।
कूड़ कपट काया का निकस्या, हरि की गति जब जाँणी।।
आँधी पीछे जो जल बुठा, प्रेम हरि जन भींनाँ।
कहै कबीर भाँन के प्रगटे उदित भया तम खीनाँ।।
कबीर की इन साखियों का भावार्थ इस प्रकार है…
भावार्थ : कबीरदास कहते हैं कि जब गुरु के माध्यम से ज्ञान का प्रकाश होता है, तब मन में व्याप्त सारे विषय-विकार रूपी अंधेरा मिट जाता है। गुरु के ज्ञान के प्रकाश के तेज से शिष्य के मन में व्याप्त भ्रम, माया का आश्रय सब हवा में उड़ जाता है। गुरु की कृपा से भ्रम और अज्ञानता मन में नहीं रह पाता। तब मोह और लोभ के खंभे गिरने लगते हैं। मोह का बलिण्डा टूटने लगता है, जो माया रुपी खंबे तृष्णा को बांधे रखते हैं, वह भी टूटने लगते हैं और छत भरभरा कर टूट कर नीचे गिरने लगती है। तब मन में व्याप्त कुबुद्धि का सारा भांडा फूट जाता है।
इस सारी आंधी के पश्चात जो ज्ञान की बारिश होती है, उससे मन में जो भी अज्ञानता रूपी कूड़ा-करकट जमा हुआ होता है, वह सब साफ हो जाता है। ज्ञान रूपी इस बारिश में सभी ज्ञानी जन ज्ञान के रस से भीग जाते हैं। ज्ञान के प्रकाश के कारण मोहमाया भ्रम आदि सभी अंधकार दूर हो उठते हैं।
व्याख्या : कबीर ने यहाँ पर गुरु के ज्ञान की महिमा का बखान कर रहे हैं। उनके कहने का आशय यह है कि जो गुरु से सच्चा ज्ञान प्राप्त कर लेता है। वह अपने मन के सारे अंधकारों को दूर कर लेता है। उसके अंदर से लोभ-मोह तृष्णा इच्छा कामनाएं माया सभी विकार समाप्त हो जाते हैं और वह परम तत्व को प्राप्त करने की ओर अग्रसर हो जाता है।
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कबीर घास न निंदिए, जो पाऊँ तलि होइ। उड़ी पडै़ जब आँखि मैं, खरी दुहेली हुई।। अर्थ बताएं।