गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।।
भावार्थ : कबीर दास गुरु की महिमा का बखान करते हुए कहते हैं कि मेरे सामने मेरे गुरु और साक्षात ईश्वर दोनों खड़े हैं। अब मैं संशय की स्थिति में हूँ। मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं पहले किसे प्रणाम करूं?
संशय की स्थिति इस स्थिति में मैं मन ही मन विचार करता हूँ। फिर मैं निर्णय लेता हूँ कि मुझे सबसे पहले अपने गुरु को प्रणाम करना चाहिए। मेरे मन में विचार आता है कि ईश्वर को तो मैंने पहले कभी देखा नहीं था। ईश्वर के स्वरूप को मैं समझता नहीं था। ईश्वर को जानने और समझने का ज्ञान मुझ में नहीं था। ईश्वर तक पहुंचने का रास्ता मुझे पता नही था यह सब मुझे मेरे गुरु ने सिखाया।
गुरु ने ही मुझे ईश्वर को जानने और समझने की सामर्थ दी। गुरु ने ही मुझे वह ज्ञान दिया, इससे में ईश्वर के स्वरूप को जान एवं समझ पाया। मैंने ईश्वर को पहले कभी नहीं देखा। लेकिन मैंने अपने गुरु को सदैव देखा। इसलिए मैं अपने गुरु को ही पहले प्रणाम करूंगा क्योंकि उन्होंने मुझे ईश्वर को जानने-समझने और उन तक पहुंचने का मार्ग सुझाया।
विशेष व्याख्या
कबीरदास का यहाँ ईश्वर से तात्पर्य ज्ञान से है। हमारे अंदर ज्ञान की जो ज्योति आलोकित होती है वह ही ईश्वर है। ईश्वर किसी शाखा सत्ता का नहीं बल्कि निराकार सत्ता का स्वरूप है। कबीर ज्ञान की उस ज्योति को ही ईश्वर की संज्ञा दे रहे हैं। लेकिन ज्ञान कि वह ज्योति जलाने में सबसे मुख्य योगदान गुरु ने दिया। कबीर के अंदर ज्ञान की ज्योति को उनके गुरु ने ही जलाया। यानि गुरु ने ही उन्हें ज्ञान रूपी ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग सुझाया। इसीलिए कबीर गुरु को सर्वोपरि रखते हैं।
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