पंखि उड़ानी गगन कौं, पिण्ड रहा परदेस । पानी पीया चंचु बिनु, भूलि या यहु देस ।। व्याख्या कीजिए।

पंखि उड़ानी गगन कौं, पिण्ड रहा परदेस । पानी पीया चंचु बिनु, भूलि या यहु देस ।।
व्याख्या : कबीर दास कहते हैं कि जब जीवात्मा ने परम तत्व का ज्ञान कर लिया तो वह सहस्रार अर्थात ब्रह्मलोक उड़ गया और उसका यह भौतिक शरीर उसी जगह पर पड़ा रहा। इसलिए अब यह शरीर उसके लिए परदेश हो गया है तथा परमतत्व स्वदेश हो गया है। जब तक उसे परमतत्व का ज्ञान नहीं था, तब तक यह शरीर जीवात्मा के लिए स्वदेश था और परमतत्व रूपी परमात्मा परदेश के समान था।
अब जीवात्मा को परम तत्व का ज्ञान हो गया है। अब वह परमतत्व समाहित हो गया है और अब तक उसके लिए परमतत्व रूपी परमात्मा स्वदेश हो गया है और उसका यह स्थूल शरीर उसके लिए परदेश के समान हो गया है। उसने बिना चोंच अर्थात बिना इंद्रियों के ही आनंद रस का पान किया है, इसलिए अब सारे बंधन को भूल गया है और सांसारिक मोहमाया के प्रति उसकी आसक्ति खत्म हो गई है।
कबीर ये कहना चाहते हैं कि जब जीवात्मा परमात्मा को समझ लेता है तो वह परमात्मा में ही विलीन हो जाता है और जब तक वो परमात्मा से अलग रहता है तो जीवात्मा बनकर इस संसार में भटकता रहता है। जब परमात्मा को जान लेता है तो परमात्मा के परम तत्व रहस्य को जानकर उसमें ही एकाकार हो जाता है और आनंद से भर उठता है। तब उसे अपने शरीर की इंद्रियों द्वारा सुख अच्छे नही लगते। वह तो परमतत्व को जानने के सुख में ही आनंद अनुभव करता है।

 

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