यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।
भावार्थ : कबीरदास कहते हैं की यह शरीर तो बुराइयों से भरा है। इस शरीर के अंदर विष रूपी बुराइयां ही बुराइयां भरी हुई हैं। एक गुरु ही है जो अमृत की खान है। जब ये विष रूपी रूपी शरीर गुरु की शरण में जाता है तो गुरु उन सभी विष रूपी बुराइयों का नाश कर देता है।
गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए आवश्यक है अपना शीश गुरु के चरणों में अर्पण कर दिया जाए, तब ही सच्चा ज्ञान प्राप्त हो सकता है। अपना शीश (सिर) गुरु के चरणों में अर्पण कर यदि गुरु से ज्ञान प्राप्त होता है, वो बहुत ही सस्ता सौदा है क्योंकि शिष्य ने कुछ भी नही खोया जबकि बहुत कुछ पा लिया।
यहाँ पर शीश से तात्पर्य अपने अंदर के अज्ञानता के अहंकार से है। अपने अंदर के अहंकार का त्याग करके ही गुरु से सच्चा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। अपने अहंकार को त्याग करके गुरु से जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह बड़ा ही सस्ता सौदा है, क्योंकि हमने जो खोया वह हमारे लिए नुकसानदायक था और हमने जो पाया वह हमारे लिए बहुत मूल्यवान है।
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